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कल एक फिल्म देखी। फिल्म का हीरो नर्क पहुँच के वहां की व्यवस्था को भ्रष्ट बना देता है फिर भ्रष्टाचार के आधार पर स्वर्ग में जगह बना लेता है वहां इंद्रा की बेटी से प्रेम करता है। यहाँ से मानव और देव का द्वंद्व दिखाया गया है। फिल्म क्या थी सनातन धर्म के अस्तित्व पर सवालिया निशान थी। स्वर्ग -नर्क, देव-दानव-मनुष्य , पाप-पुण्य, जीवन मरण और मोक्ष सभी के अस्तित्वों की परिभाषा को फिल्म ने हवा में उड़ा दिया। धर्म पर बनी बहुत सी फ़िल्में सनातन धर्म की अभी तक की गढ़ी गयी परिभाषाओं को धता बता चुकी हैं। मुझे ख़ुशी है कि धर्म के ठेकदारों को चुनौतियाँ दी गयी क्योंकि मुझ अज्ञानी की समझ में धर्म तो सैद्धांतिक तौर पर जीव, जगत और जगदीश के सम्बन्ध में वे नियम या विश्वास हैं जिनके अनुकरण में हमारा सह अस्तित्व तय होता है। इसी सह अस्तित्व का सामाजिक और राजनैतिक स्वरुप स्थिर समाज होता है। थोडा गंभीरता से सोचें तो हम पाते हैं कि सम्पूर्ण जीव जगत का आपस में सम्बन्ध हो सकता है। हर एक जीवधारी की विशिष्ट पहचान उसके सहज गुण, धर्म और उसके विशिष्टताओं से होती है। सभी में संवेदना और बुद्धिमत्ता का अलग -अलग स्तर हो सकता है। उसको समिष्टि का रूप देने के लिए उसके नाम, जाति, इत्यादि पहचान चिह्नों की जरुरत होती है। कार्ल लिनियस के अध्ययन में इसका एक भौतिक प्रारूप देखा जा सकता है। अब इसमें से यदि हर एक सजीव के विशिष्ट अस्तित्व और सहजीवन को नकार दिया जाये तो आपकी जातिगत व्यवस्था तो समाप्त हो जाती है लेकिन बड़ा खतरा पैदा होता है पहचान का। जिसके बिना फिलहाल तो मनुष्य और मनुष्यता को अपना खुद का अस्तित्व साबित कर पाना संभव नहीं। मनुष्य की कुछ सहज जरूरतें है तो कुछ स्वभावगत जिसको ऐन्द्रिक, अध्यात्मिक इत्यादि तौर पर समझा जाता है। इसको कुछ यूँ मान लीजिये कि दर्द होना सहज अर्थात जन्म के साथ उत्पन्न है नहीं होता है तो उसे विकार माना जायेगा उसका इलाज किया जायेगा। उसी प्रकार भूख लगना, नींद आना आदि भी सहज है। रोटी कपडा और मकान सहज यानि बुनियादी जरूरतें हैं। दूसरी जरूरतें स्वभावगत हैं उदहारण के तौर पर कार से सफ़र आसान होता है लेकिन इसमें किसी विशेष कंपनी वाली या किसी विशेष खूबी वाली कार को लेना ऐन्द्रिक यानि इच्छापूर्ति। ईश्वर की आराधना में किसी विशेष स्वरुप को पूजना अध्यात्मिक तौर पर ही परिभाषति किया जा सकता है और व्यक्ति विशेष के लिए यह जरुरी भी है । इस प्रकार के दुनिया का सामाजिक, आर्थिक और व्यावहारिक ढांचे में क्या आप अपनी पहचान के लिए प्रयास नहीं करते? सोचिये अब यदि आप लोग अपनी पहचान के लिए प्रयास नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ? धर्म के सैद्धांतिक और तार्किक सन्दर्भ में जैसी बहस होनी चाहिए वह कहीं नज़र नहीं आती। विश्वासों के आधार दरक रहे हैं। इसके दीर्घकालिक प्रभाव आम जन के धर्म यानि धर्म के सांस्कृतिक अस्तित्व को भी समाप्त करने की दिशा है। वैसे तो यह धार्मिक प्राधिकरणों के लिए प्रधान चुनौती है और इस पर गंभीरता से चिंतन किये जाने की जरुरत है। चुनौती को यूँ देखा जाये कि सहज स्वभाव में से यदि सनातनी संस्कृति इतनी अतार्किक और आधारहीन है तो फिर दीर्घकाल में इसका ख्रिस्ती, इस्लाम, पारसी या यहूदी या अन्य विश्वासों में विलीन होना तय है। पारस्परिक संघर्ष से बचने के लिए दुसरे धर्मों को भी इस विषय में दीर्घकालिक तौर पर सहजीवन या एकीकरण में से एक का चयन करना होगा। सभ्यताओं के संघर्ष के दावे करने वाले लोग इसको अपरिहार्य बताते हैं। इसमें बुद्धि विलास और कर्मकाण्ड पक्ष को की गंभीरता से खुद की समीक्षा करनी होगी। शायद इसके लिए धर्म के नाम पर तात्कालिक हितलाभ के उद्देश्यों की राजनीति करने वाले हिंदुत्व वाले लोग भी अपनी सार्थक भूमिका स्वयं तय कर सकें। जाहिर है कि राजनैतिक या भौतिक तौर पर एकरूप बना देने में लगे लोगों को इस आत्मघाती संभावना पर विमर्श के लिए ठहरना होगा। आर्थिक, राजनैतिक या भौतिक तौर पर एकरूपता की बजाए भावनात्मक एकरूपता की जरुरत है। इसको पारस्परिक संवाद के बिना स्थापित नहीं किया जा सकता। सनातन धर्म को भी डार्विन के “सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता” जैसे भ्रमों से बचने के लिए आवश्यक अनुसन्धान और आत्म समीक्षा की की जरुरत है।