भूमि अधिग्रहण आन्दोलन से कैसे अलग हुआ गाय का सवाल !

Posted: February 25, 2015 in Children and Child Rights, Education, Geopolitics, Politics, Uncategorized, Youths and Nation
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राकेश मिश्र

भारत देश का शायद ही कोई बच्चा हो जिसने दूध के बिना दुनिया देखी हो| जब से होश संभाला है देखते ही देखते दूध के दाम पांच रुपये लीटर  से पैंतालिस रुपये लीटर हो गए| पिछले दशक में दूध के दाम जिस प्रकार बढे हैं उससे तो यही लगता है की दूध भी अब अमीरों की लक्जरी की वस्तु बनता जा रहा है|

इस मुद्दे पर जितने लोग इकट्ठे हुए हैं.. और जितने लोग गाँव की मिट्टी से जुड़े हैं उनमे से कौन इस बात से इनकार करेगा की गाँव और गाँव की जमीन का सबसे आसानी से भला हो सकता है तो गाय की परवरिश से| गाय से सीधे जुडी है गाँव की खेती और कुपोषण से|

जिसके आंकड़े कुछ इस तरह के हालात बयां करते हैं

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पिछले एक दशक में भारत की खेती योग्य 12.5 करोड़ हेक्टेयर जमीन में से 1  करोड़ 8० लाख जमीन खेती से बाहर  हो गयी|

आंकड़े बताते हैं की देश का हर चौथा आदमी भूखा है और हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है|

पिछले एक दशक में देश के किसान की माली हालत कुछ यूँ रही है की लगभग ढाई लाख किसानों ने आत्म हत्या की| काबिले गौर बात ये है की ज्यादातर किसान मदर इण्डिया वाले सुक्खी लालाओं के कर्ज और ब्याज से बुरी तरह प्रताड़ित थे |

Photo Courtesy : Reuters

गोबर की खाद से फसल और मिट्टी का स्वस्थ्य ठीक होता है | लेकिन हरित क्रांति में भारतीय सांस्कृतिक विरासत का ये तथ्य हमेशा के लिए उपेक्षित बना दिया गया| भारत  में हरित क्रांति, फोर्ड के ट्रेक्टर और भोपाल गैस वाले दाऊ केमिकल्स के कीटनाशकों से परवान चढ़ी |   किसान भले ही ज्यों के त्यों रहे हों यूरिया कंपनियों के लाभ दिन दूना रात चौगुना बढ़ते रहे| फोर्ड का ट्रेक्टर लेकर औसत दर्जे के किसानों को  कर्ज चुकाते हुए कई दशक गुजर गए |

गाय और पशुधन की बदहाली से हालत ये हुई की आज भी औसत जोत के किसानों की पैदावार खाने पीने भर को भी पूरी नहीं होती| उस पर महंगाई की मार से गाँव भी अछूते नहीं रहे| जाहिर है की उदारीकरण के बाद से  जमीन पर खेती करना सबसे चुनौती पूर्ण काम बन गया है|

एक नजर जंतर मंतर

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जंतर मंतर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का एक समूह भी था| उनका मुद्दा था गन्ने की फसल के भुगतान न हो पाने का| पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान के लिए मीलों  द्वारा तीन साल से गन्ने का  भुगतान न हो पाने की वजह से खाने तक को मोहताज हैं| उनके नेता हैं वी एन सिंह जिनके साथी हजारों किसान अन्ना के आन्दोलन में शामिल हुए| इस आशा के साथ की अन्ना हजारे और “एनजीओ ब्रिगेड” वाले इस मसले को उठाएंगे| मंच से हजारों बातें हुयीं दर्जनों भाषण और बयानबाजियां हवा में उछाली गईं| लेकिन किसानों से सीधा जुदा मसला भूमि अधिग्रहण आन्दोलन से अछूता ही रहा| इस मसाले पर प्रख्यात गाँधीवादी अन्ना हजारे, जलपुरुष राजेंद्र सिंह, जैसी नामचीन शख्सियतों के इस प्रकार से मुह फेर लेने से असली आन्दोलनकारी किसानों को गहरी निराशा हुई है|

गौरक्षा पर आन्दोलन में शामिल लोग मोदी सरकार के यू टर्न से पहले से ही निराश हैं|

कुछ इसी प्रकार की निराशा हुई है गौरक्षा के सवाल पर तीन महीने से जेल में बंद संत गोपाल दास समर्थकों को भी| संत गोपाल दास ने तिहाड़ जेल में  इक्कीस तारीख से निर्जल अनशन शुरू कर दिया है| फाफी अरसे पहले संत गोपाल दास और तमाम संतों के साथ हुए क्रूरतम सरकारी अत्याचार पर तमाम संगठनों ने आन्दोलन शुरू किया था| जन्तर मंतर पर आन्दोलन का सिलसिला फिलहाल जारी है| समर्थकों पिछले कई दिनों से  भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ आन्दोलन के लिए जुटने वालों से संत गोपाल दास की ससम्मान रिहाई और गौरक्षा मामले में समर्थन माँगा| गाय, गाँव और गंगा वाले भारत देश के इस मूलभूत मुद्दे पर एनजीओ ब्रिगेड के प्रदर्शनकारियों की अनिच्छा साबित करती है की जमीनों की सौदेबाजी और दलालों की कारस्तानी के बीच गाय और गाँव की हैसियत कुछ भी नहीं|

‘अन्ना जी की रैली में आए हैं। हमारे नेताजी लेकर आए हैं। हमें नहीं पता यह धरना-प्रदर्शन किस लिए हो रहा है।’

यह कहना है कटनी, मध्यप्रदेश से जंतर-मंतर पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में अन्ना हजारे के दो दिवसीय धरने में शामिल होने आए किसान खदामी लाल का। उनके साथ 200 से अधिक लोग आए हैं। किसानों को जिस तरीके से बरगला के लाया गया वो इतने से ही साफ़ हो जाती है|

इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। लेकिन अधिकतर को नहीं पता कि अन्ना धरना क्यों दे रहे हैं। कई किसानों ने बात करने से साफ इन्कार कर दिया। उनका कहना था कि नेताजी ने किसी भी बाहरी से बात करने से मना किया है। आपको जो पूछना है नेताजी से पूछें।

इनके नेता हैं प्रख्यात समाजवादी एक्टिविस्ट सुनीलम जिनके नाम नक्सली आन्दोलन में शामिल होने के कई मामले जुड़े हैं|

एकता परिषद के अध्यक्ष पी   वी राजगोपाल गाय और गाँव की बात न करके जल, जंगल और जमीन की बात करते हैं| विदेशी बीवी के साथ जय जगत का नारा लगाने वाले राजगोपाल के ट्रेवलर और आन्दोलन के खर्चे किस कंपनी के चंदे से चलते हैं इस बात का जिक्र करने से ही आप जन विरोधी हो जायेंगे| ठीक उसी तरह जैसे गाय गाँव और गंगा की समग्र बात करने वाले लोग विकास विरोधी ठहरा दिए जाते हैं|

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भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ एकजुट दिखने वाले इन सभी लोगों ने जंतर मंतर पर ही अलग अलग मंच बना लिए और आन्दोलन में शामिल जनता के लिए पूरे दिन ऊहापोह की स्थिति बनी रही| मंच भी बने  तीन जिसमे से अन्ना हजारे के मंच के सञ्चालन में लगे लोग दिन भर घोषणा   करते रहे की अन्ना अभी थोड़ी देर में आने वाले हैं| जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (NAPM ) की मेधा पाटेकर और राकेश रफीक अन्ना के साथ अलग मंच पर नज़र आये तो पी वी राजगोपाल और राजेंद्र सिंह अलग दिखाई दिए| पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का अलग धडा राष्ट्रीय अध्यक्ष वी एन सिंह के नेतृत्व में अलग थलग पड़ा रहा तो इस आन्दोलन में गाय के सवाल की भूमिका तलाश  रहे गोविन्दाचार्य मंच पर जगह नहीं पा सके| कुल मिला कर कुछ लोग मंच पर तो कुछ लोग मीडिया की नज़रों में जमीन तलाशते रहे|

अब बात करते हैं भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की तो भूमि अधिग्रहण के मसले पर जंतर मंतर पर जुटे लोगों ने इतने गंभीर मुद्दे पर अपरिपक्वता का

परिचय दिया है| इतनी नामचीन हस्तियों ने जिस प्रकार से एक जुट होने का प्रयत्न किया है वह निशिचित रूप से बनने से पहले ही बिखर चुकी है| जानकार लोग  इस मुद्दे की उच्छाल में  अरविन्द केजरीवाल का शामिल      आम आदमी पार्टी के राजनैतिक विस्तार के तौर पर देख रहे हैं| कहना वाजिब भी लगता है क्योंकि संसद के विधान सभा सत्र में संसद की चौखट पर हो रहे आन्दोलन से मोदी  सरकार के साथ सौदेबाजी के लिए माहौल तो बना ही दिया|

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